Monday, February 28, 2011

समेट लो मुझे


कितने समंदर हे तेरी आँखों में
मन मेरा
लहरों की तरह उछलता रहा
डूबना चाहा तह तक
पाना चाहा अनमोल रत्न
प्रेम ,प्रीत ,स्नेह समर्पण के ,
पर तुम न जाने कोनसी
पीड़ा का गरल पी कर
मृदु प्रीत को खार में
बदल रहे हो ,
क्षत –विक्षत कर बैठे हो
सम्पूर्ण राग को ,
मै इस खार को
अपनी आँखों में भर ,
तुम्हारे अंतस में
भरना चाहती हू मृदुलता
गीत सुमनों से
सुगन्धित करना चाहती हू
तुम्हे ...
समेट लो मुझे अपने मै .
तुम्हारी कटुता का भँवर
मुझे तट तक भी नहीं जाने देता
और नहीं जाने देता तह तक ....


प्रवेश सोनी