समेट लो मुझे
कितने समंदर हे तेरी आँखों में
मन मेरा
लहरों की तरह उछलता रहा
डूबना चाहा तह तक
पाना चाहा अनमोल रत्न
प्रेम ,प्रीत ,स्नेह समर्पण के ,
पर तुम न जाने कोनसी
पीड़ा का गरल पी कर
मृदु प्रीत को खार में
बदल रहे हो ,
क्षत –विक्षत कर बैठे हो
सम्पूर्ण राग को ,
मै इस खार को
अपनी आँखों में भर ,
तुम्हारे अंतस में
भरना चाहती हू मृदुलता
गीत सुमनों से
सुगन्धित करना चाहती हू
तुम्हे ...
समेट लो मुझे अपने मै .
तुम्हारी कटुता का भँवर
मुझे तट तक भी नहीं जाने देता
और नहीं जाने देता तह तक ....
प्रवेश सोनी