Sunday, March 15, 2015

शब्दकोष में
उखड़ रहे पन्नें
शब्दों के उग आये पर
उड़ रहे वो अनन्त में ..
क्योकि लिखी जा रही है कवितायेँ

स्त्री लिख रही है कवितायेँ
कविता का ककहरा
सीखा उसने
पुरुष द्वारा बनाई चौहद्दी की कैद उम्र में
रेखाओं ,वृतों में आवृत रही
बनी रही सीता
अग्निपरीक्षाओ के बावजूद
मिला त्याग का त्रास
बस वही से लिखी स्त्री ने कवितायेँ ।

लिख रही है माँ कवितायेँ
अपनी सन्तानो की बोली में
पहचान रही माँ खुद को
या खो रही माँ होने का पद
रात -रात की निद्रा का त्याग
सहर्ष स्वीकार लिया नमी वाला बिछौना अपने हिस्से में
उफनते दूध में उफ़न आती है स्म्रतियां
दूध के कर्ज का नही देती हवाला
माँ अकेली आँसुओ की स्याही से लिख रही है कविताएँ ।

पत्नी लिख रही है कवितायेँ
क्षण-क्षण ह्रास होते जीवन में
जीवित क्षण तलाशती
सप्तपदी,सात वचन,सात जनम
जन्मों -जन्मों के पूण्य
बस एक पद चलने की ललक में
समर्पित जीवन पर्यन्त....
रिश्तों की नक्काशियों से स्वम् को तराशती
पत्नी लिख रही है कवितायेँ ।

प्रेयसी लिख रही है कवितायेँ
जाते हुए प्रेयस की राह में
उड़ी मिटटी से चुंधियाई आँखों में नमी भर
कर रही है अन्तःकरण में प्रेम की व्याख्या
प्रेयसी पढ़ रही है गीता
शरीर और शरीरी के भेद को समझ
प्रेमग्रंथो का मानक मान रही है
प्रेम शरीर से था तो शरीरी क्यों व्याकुल हुआ
नहीं -नहीं प्रेयसी के लिए नहीं है गीता
राधा और मीरा ने नहीं पढ़ी गीता
बंशी और इकतारे को लेकर
प्रेयसिया लिख रही है कवितायेँ ।



प्रवेश सोनी
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Sunday, March 8, 2015

विदा होती बेटिया


विदा होती बेटीया
छोड़ जाती है देहरी पर
कुनकुनी धुप सी यादें
ओढ़ लेती है बाबुल की चोखट उसे
सुनी सी सर्द दोपहरी में ।


तुलसी बिरवे के दीपक में
बाती बन जाती है बेटिया
सुबह शाम दुआएँ
रोशन होती है आँगन में।


विदा होती बेटिया
माँ के आँचल को दे जाती है नमी
उग आती है छोटी छोटी दूब
मन के हरेपन के लिए ।


विदा होते है  उनके साथ
वो सपने बचपन के
गुड्डे गुड्डियों के सलोने जीवन के 


ममता देहरी पर खड़ी
देखती है बस
उन सपनो का सच होना 

विदा होती बेटिया
ममता का सपना होती है
सच करती है उसे
बेटिया देहरी से विदा होकर ।।


प्रवेश सोनी
~~~~~~~
सवाल
=====
सिमटी ,
उफनी ,
और बह गई
नदी ....
सागर को आलिंगन कर
बस पूछा
एक सवाल...
प्रीत मेरी
इतनी मीठी थी ,
तुमसे मिल कर
खारी क्यों हो गई ..!!



प्रवेश सोनी
सफर 

तुम और में ,साथ चले थे ...
विश्वास की राह पर ,
तय करने इक सफ़र...
पर सफ़र कोनसा ..??

तुम्हारी सोच
तुम तक ही सिमित थी ,
और मैंने उससे अलग होकर
सोचना ही नहीं सीखा .....
साहचर्य स्पंदन था
तुम्हारी कदम ताल से
प्रयासरत की सुर समागम
बना रहे अंत तक .....

तुम साथ तो थे ,
पर चले जा रहे थे
अपने भीतर के
स्म्रत- विस्मृत
भाव जगत मै रत
बिना पीछे मुड़े ....
और मै ..
तुम्हारे अबोले , असमझे भावोँ को
समझने मै ही खड़ी रह गई ..
तल्ख़ धुप में झुलसती ,
चाह रही हू तुम्हारे
अपनेपन का साया ,
उभर –धुसर राह में .....

प्यासी धरा के तन सी
फट गई कदमो में बिवाईया,
चू रहा लहू बना रहा निशां
घिसटते कदमो के साथ ...
तुम और तुम्हारे कदमों के निशां
ओझल हो गए नज़रों से ...

कोनसे शब्दों के सम्मोहन से
पुकारू तुम्हें ,...
कि तनिक रुक कर सुनो मुझे,
बता सको कि
कहा छूट गई विश्वास कि राह ...
तुम्हारी राह तकते हुए
खड़े हे राह में है
घायल कदम मेरे
आस लिए ...
फिर नए सफ़र में
चलोगे संग तुम मेरे !!!!


प्रवेश सोनी
वीरा
~~~~~
7-8 वर्ष की रही होगी उसकी उम्र जब वो अपनी माँ के साथ काम पर आती थी ।वीरा नाम सुनते ही कानों को सुहा गया।अपने नन्हे हाथो से बाल्टी में पानी भर -भर के माँ की बरामदा धोने में मदद करती थी ।

धीरे -धीरे वीरा की माँ ने काम पर आना बंद कर दिया और वीरा के नन्हे हाथों ने काम की बागडोर सम्भाल ली ।कई बार पूछा की माँ क्यों नहीं आती तो बड़ी मासूमियत से वीरा कहती आंटीजी में बहुत अच्छे से सफाई करुँगी आपके ।माँ को और घर भी काम करने जाना होता है न।मेरा मन कई बार बालश्रम के अपराध से ग्रसित होता लेकिन ना जाने क्यों वीरा को देखने की आदी हो चुकी आँखे रोज सुबह उसका इन्तजार करती रहती ।उस नन्ही बालिका ने ना जाने कोनसा मोहिनी मन्त्र दिया था मुझे जो मन उससे कोई अनजाना बंधन बाँध बैठा था ।
मौसम बदलते रहे और वर्ष दर वर्ष वीरा मेरे मन में गहरे तक बसती गई।
जब बुखार ने 8-10 दिन तक पीछा नही छोड़ा तो वीरा ही थी जिसने रसोई में चाय पानी का काम भी संभाल लिया था।वीरा समझदार भी बहुत थी कोई काम एक बार समझाने पर आसानी से समझ जाती थी ।बच्चों और पति को भी थोड़ी राहत मिल गई थी अकस्मात सर पर आये काम से ।
जेसे ही बाहर का गेट खुलने की आवाज़ आती कान वीरा के कदमो की आहट पहचान जाते ,और मन खुश हो जाता उसे देख कर ।
सत्यनारायण की कथा की कलावती की तरह वीरा भी दिनों दिन शरीर और उम्र से बड़ी हो रही थी ।एक दिन उसकी बहिन ने आकर कहा की वीरा 8 दिन तक नही आएगी ।1-2 नही पूरे 8 दिन...!! ऐसा क्यों?
बहिन जो खुद एक बच्चे की बालक माँ थी,मुझे इशारो में समझाया कि वो कपडे से हो गई है ।बहुत देर तक दिमाग पर जोर दिया तब असल बात समझ पाई ।
प्रकृति ने स्त्री की शारीरिक बनावट को स्त्रीत्व प्रदान करने केलिए बचपन से ही ऐसी परीक्षाओ से दो दो हाथ होना सिखा दिया था ।
एक बालिका के बचपन की स्वभाविक्ता इस तरह की परीक्षाओं की जटिलता को समझने में ही ख़त्म होने लगती हे ।परिवार की बड़ी स्त्रियाँ जो इन परीक्षाओं में पारंगत हो चुकी हे ,उनके द्वारा दी गई हिदायते मासूम बालिका को समय से पहले बड़ा बना देती हे।
8 दिन बाद शर्म से झुका वीरा का चेहरा नज़र आया ।मेरी आँखे तो उसे देख ऐसे तृप्त हुई जेसे लम्बे विरह के बाद प्रिय के दीदार हुए हो ।
वीरा मेरे सवालो से कतराती हुई चुपचाप काम में लग गई ।जब वह जाने लगी तो मेने प्यार से उसे अपने पास बिठाया।,और गर्म दूध का गिलास उसे पकडा दिया ।जब वो दूध पीने लगी तो मेरे हाथ उसके उलझे बालो को सहलाने लगे ।तब कही जाकर वीरा के चेहरे पर पुरानी सहजता आई ।
समय अपनी रफ़्तार के साथ वीरा और मेरे रिश्ते को प्रगाढ़ता देता रहा ।होली के रंग और दीवाली की थका देने वाली सफाई के साथ तैयारिया ,सब में वीरा का अहम् हिस्सा होता ।काम करते वक़्त उसका गुनगुनाना मेरी थकान को चुटकियों में दूर कर देता।अच्छा लगता था मुझे उसका गाना ।
दीवाली की छुट्टियों में बच्चों के घर आजाने पर काम का दबाव थोडा बड़ जाता ।जिसे वीरा हंस कर कैसे हल्का कर देती थी।वीरा का यह गुण मुझे मोह लेता था ।
देर रात तक रसोई में काम करने बाद सुबह उठी तो देखा घड़ी 8 बजा रही थी ।अरे आज वीरा भी लेट हो गई शायद ।यही सोच कर गैस पर दूध चढ़ा कर अखबार के पन्नें पलटने लगी ।छुट्टियों में बच्चों का सबसे जरुरी काम देर तक सोना होता हे सो मुझे भी ज्यादा चिन्ता नही हुई काम की ।
8से 9 और 9 से 10 बज गए ....अरे आज क्या हो गया ।त्यौहार और उस पर वीरा का बिना बताये छुट्टी कर लेना मुझे थोडा परेशान सा करने लगा ।जेसे तेसे मेने घर का काम किया और दोपहर में वीरा को फोन किया ।
यह मोबाइल वीरा ने अपनी तनख्वा से बचत करके लिया था ।कितना पीछे पड़ी थी मेरे ,आन्टी मुझे मोबाईल दिला दो मुझे गाने सुनना हे ।मेने थोडा डॉट कर कहा था पढ़ने का तो शौक नही तुझे गाने सुनने का तो बड़ा शौक हो गया है ।हँस कर कहती कोनसा मुझे मेम बनाना हे पढ़ कर करना तो झाड़ू पोछा ही हे।
हार कर मेने उसे मोबाईल दिला दिया ।
कई बार नम्बर मिलाने पर भी जब कोई जवाब नही आया तो मन खीझ गया। पहली बार मुझे वीरा पर गुस्सा आया ।त्यौहार ,बच्चों का घर पर आना और वीरा का बिना बताये छुट्टी कर लेना मुझे गुस्सा करने को प्रेरित कर रहे थे ।हालांकि बेटियों ने बराबरी से रसोई में काम संभाल लिया था पर मेरा मन व्यथित था की बच्चे कुछ दिनों को घर आये तो भी उन्हें काम करना पड़ रहा था । दिल और दिमाग यही सोच कर परेशान था की आखिर बिना बताये वीरा ने छुट्टी क्यूँ की ...वो कभी ऐसा करती तो नहीं है ।कही वो बीमार तो नही हो गई ,लेकिन बीमार होती तो फोन तो उठा सकती थी ।कितने विचार दिमाग में और सबमे वीरा ही थी ।
4 दिन बाद वीरा की बहिन घर आई और कहने लगी की वीरा के काम के पैसे दे दो ।
में हैरान सी उसे देखने लगी ।पूछा वीरा काम छोड़ रही हे क्या?जवाब में उसने हां में गर्दन हिलाई ।
क्यों पर..?
सवाल करते वक़्त कई आशंकाओ से गिर गई थी में ।बहिन ने इठला कर कहा की उसकी शादी हो गई ।
क्या !!! में खुद को संभाल नही पाई और धम्म से सोफे पर बैठ गई ।
वीरा की शादी कहाँ ,कैसे ,कब ???
कही तुमने उसे पैसे के लालच में बेच तो नही दिया ।में चिल्ला सी पड़ी उस पर ।पति ने मुझे लगभग डांटते हुए कहा "रश्मि ये क्या कह रही हो ,यह उनका निजी मामला है ।"
नहीं ऐसा नही हो सकता वीरा ने कहा था एक बार मुझे कि हमारी जात में शादी में पैसे मिलते है लड़के की तरफ से ।मेरी बहन को 5000 मिले थे पर आन्टी में शादी नहीं करुँगी ।मेरी बहिन को उसका आदमी बहुत मारता हे और काम के सारे पैसे भी ले लेता हे।वीरा की बहिन के साथ आये अधेड़ को देख कर मुझे सारी बाते सही लगने लगी ।कही वीरा भी किसी ऐसे ही अधेड़ या कोई और .....
नही में तुम्हे कोई पैसे नहीं दूंगी ।साथ आया अधेड़ आदमी खा जाने वाली नज़रो से मुझे घूरने लगा ।मेरे पति ने उन्हें समझाया की वीरा के पैसे वीरा को ही मिलेंगे आप उसे ही भेज देना ।यह सुन कर मन में एक आस बंध गई वीरा से मिलने की ।बहिन चली गई लेकिन मुझे सोचने को कई सारे सवाल दे गई ।मेरा मन वीरा के बारे में सोच सोच कर परेशान हुवा जा रहा था ।खाना पीना सब बेस्वाद सा हो गया ।बेटियों ने यह कह कर मुझे हँसाने की कोशिश की माँ आपकी एक बेटी का ब्याह हो गया खुश हो जाओ पर ये केसी शादी ।मन मानने को तैयार ही नही था ।
लगभग 6 महीने बाद अचानक वीरा घर आई।उसकी आँखे आसुओं से भरी हुई थी ।में भी उसे गले लगा कर सुबक पड़ी ।
क्या हुआ तुझे ,इतनी काली क्यूँ हो गई ,और गाल भी पिचक गए हे आँखे भी गड्ढे में धसी हुई हे ।क्या ससुराल में परेशानी हे तुझे ?जुबान और आँखों से सवालोँ की बौझार कर दी थी मेने ।वीरा बस एक बात बोली ,आन्टी जी मुझे काम पर रख लो प्लीज़ ।अंधे को चाहिए क्या दो आँख।वीरा के जाने के बादमेने कोई काम वाली बाई नहीं रखी थी ।मेरी नज़र में वीरा की जगह कोई नहीं ले पा रही थी या यु कहु की में ही किसी को वो जगह नहीं देना चाहती थी ।वजह कुछ भी रही हो पर अभी तक घर का सारा काम खुद ही कर रही थी ।वेसे बच्चों के चले जाने के बाद हम दोनों का काम था भी कितना ।
हाँ हाँ क्यों नहीं पर बता तो सही बात क्या है ।आन्टी जी मेरा ससुर मुझसे पाँव दबवाता था और मना करने पर सास मुझे बहुत मारती थी ।पति तो नशे में क्या क्या नही करता था ....में छोड़ आई ,अब नही जाउंगी।उनके पैसे दे दूंगी में काम करके पर ससुराल नही जाउंगी ।
वीरा तो बर्तन धोने चली गईथी पर में शादी के सात वचन और पवित्र कहे जाने वाले बंधन की मीमांसा करने में जुट गई ।इस बंधन में बंधे रहना सुखद हे या आज़ाद होना ....।कई सवाल ऐसे होते है जिनके जवाब भी सवाल ही होते हे ।सवालो के भँवर से वीरा की आवाज़ ने ही बाहर निकाला जो बर्तन धोते हुए गुनगुना रही थी "जिंदगी हे सफ़र ये सुहाना यहाँ कल क्या हो किसने जाना ....!!!

प्रवेश सोनी
भुरभुरे रिश्ते
बिखरी होती है इनकी मिटटी
कितने ही सनेह रस से गुथो इन्हें
स्वार्थ की धुप
इनकी मिटटी को तड़का देती है
बहुत सुन्दर आवरण से होते है ये ढके हुए
सत्य की हवाए इन्हें
कर ही देती है अनावरण
तभी नज़र आती हे इनकी
असली तासीर
छूने भर से ढेर हो जाते है
भुरभुरे रिश्ते
प्रेम की डोर
नहीं बाँध सकती इन्हें
प्रेम बेचारा पस्त हो जाता है
इनके बोझ से
थक हार कर
खड़ा हो जाता
ख़ामोशी से एक और
बहाता है अविरल नीर बस
अपनी आँखों से
रिश्तों की किरकिरी
चुभती है आँखों में जो उसके
मजबूर हताश ....
करे भी तो क्या
सिवा आँसू बहाने के
भुरभुरे रिश्तों की मौत पर .....
मौत तो होती ही है
तकलीफदेह
परन्तु रिश्तों की मौत स्वभाविक
नहीं होती ....
अदृष्य खतरनाक हथियारों से
हां हां हथियारों से क़त्ल किया जाता है
रिश्तों का ...
और कातिल होता है
स्वार्थ और दम्भ रत कोई अपना ही रिश्ता ...।



प्रवेश सोनी
प्रेम....
कहने से प्रेम नही होता
डूबना होता है
मुस्कराहट के पीछे
अनबहे आसुओं के समंदर मै
ढूँढने होते है
खुशियों के मोती
काले नीले पीले शेवालों के बीच
हां कहा भी कहाँ जाता है
प्रेम
कही तो जाती है दास्ताँ
और वो कहानियाँ
जो होती तो है
पर हो नही पाती

अनकहा प्रेम सदा होता है
आँखों के कोरो मैं बंद
आँसुओ के तटबंधो में
सहेजा हुआ
जेसे सीप में पला मोती
और दर्द के पैरहन में
संवरता सुख ।
प्रेम की पराकाष्ठा है यही
जो ...
दुःख के मौन से गुजर कर
सुख में मुखर हो जाती है ।



प्रवेश सोनी
~~~~~~
टूटता है ,
बिखरता है ......

सब अस्त -व्यस्त हो जाता है
समेटना होता है
खुद को ही
तनहा अकेले अकेले

दूसरा कोई
समेटता नहीं
और बिखेर देता है
बिखराव अलगाव ना बने
इसलिये अलग -अलग
अवसर पर
होता है अलग -अलग मन
मन नहीं होते दो -चार
एक को बदल -बदल कर
अवसरवादी बना देती है
टूट कर जुड़े रहने की जिजीविषा

साँसों का साथ बना रहे
उल्लास के नन्हे परिंदे से
पर
नन्हा न जाने कब यौवन खोकर
वयोवृद् होने लगा है ।
परवाज़ तो है पर
आकाश नही रहा अब उसका
देखता है टूटे पर
और चारो और
मरे हुए लोगो को जिन्दा होने में शोकमग्न ...

जीवन एकांकी में परिदृष्य बदलते ही है ।।


प्रवेश सोनी
~~~~~~~~~