Wednesday, November 24, 2010


भावावेश मयी खगी
कागज के पंख
लगा कर
उड़ने की कोशिश में
फडफडा रही हे

कभी दुःख की व्यथा भरी
कभी सुख की कथा भरी

चुगती हे दाने
उल्लास -विषाद के

कभी आर्तक्रदन
कभी निस्तब्ध निश्चेतन

विकल ह्रदय नभ पर
करती कभी उन्मन्न गुंजन

लहूलुहान हो जाती हे जब
अंतर्मन के दर्पण पर
प्रहार कर स्वं को समझ नहीं पाती

हे कोन जो अंतस में हे द्वंदरत ?
विलग रहता चेतन से सदा

थक हार निढाल हो
निर्मिमेष नजरो से
निहार सब और

उड़ जाती हे फिर
अन्नत में तलाशने खुद को ..........



pravesh soni

Wednesday, November 10, 2010


फासलो के
फलसफे

अहम और स्वभिमान
का द्वंद

अनुपूरक होते रिश्ते
दरकती दीवारे

बनती
सपनों की कब्रगाह

स्याह अंधेरो में
चीखते उजाले

कब ,केसे होगी भोर

असमंजस
कब होगी उदय
मन क्षितिज पर
सुखो की लालिमा

कब क्षीण होगी
दुखो की तपन

एक बूंद
आशा का प्रकाश
सहला देती हे

शीतल चांदनी बन

उठता हे मन फिर

एक बार
मर कर जीने के लिए .....!!!


प्रवेश सोनी

Monday, November 8, 2010


चाहत थी मन की

चाहत थी अपनी
राग की नदी बन बहूं तुम्‍हारी सांसों में
यही तो रही चाह तुम्‍हारी भी,
पर सहेज नहीं पाए
तुम अपने मन का आवेग
स्‍वीकार नहीं पाए
अपने भीतर मेरा निर्बंध बहना,
जो बांधता रहा तुम्‍हें किनारों में,

हर बार सह-बहाव से अलग
तुम निकल जाते रहे किनारा लांघकर
खोजते तुम्‍हें उसी मरुस्थल में
बूंद बूंद विलुप्त होती रही मैं
साथ बहने की मेरी आकांक्षाएं
पंछी की प्यास बनकर रह गईं
राग में डूबे मन ने फिर फिर चाहा
तुम्‍हारी चाहत बने रहना.....आजन्‍म
तुम हार तो सकते हो दीगर हालात से
मगर संवार नहीं सकते
अपना ये बिखरा जीवन-राग

मुझमें भी अब नहीं बची सामर्थ्‍य
धारा के विपरीत बहा ले जाने की
न आंख मूंदकर मानते रहना हर अनुदेश
मैं अनजान नहीं हूं अपनी आंच से
नहीं चाहती‍ कि कोई आकर जलाए तभी जलूं
बुझाए, तब बुझ जाऊं
नहीं चाहती कि पालतू बनकर दुत्कारी जाऊं
और बैठ जाऊं किसी कोने में नि:शब्‍द
मुझे भी चाहिए अपनी पहचान
अपने सपने -
जो कैद है तुम्‍हारी कारा में
चाहिए मुझे अब अपनी पूर्णता
जो फांक न पैदा करे हमारे दिलों में ...
करो तुम्‍हीं फैसला आज
क्या मेरी चाहत गलत है
या तुम्‍हीं नहीं हो साबुत, साथ निभाने को ..???


प्रवेश सोनी