Wednesday, November 24, 2010


भावावेश मयी खगी
कागज के पंख
लगा कर
उड़ने की कोशिश में
फडफडा रही हे

कभी दुःख की व्यथा भरी
कभी सुख की कथा भरी

चुगती हे दाने
उल्लास -विषाद के

कभी आर्तक्रदन
कभी निस्तब्ध निश्चेतन

विकल ह्रदय नभ पर
करती कभी उन्मन्न गुंजन

लहूलुहान हो जाती हे जब
अंतर्मन के दर्पण पर
प्रहार कर स्वं को समझ नहीं पाती

हे कोन जो अंतस में हे द्वंदरत ?
विलग रहता चेतन से सदा

थक हार निढाल हो
निर्मिमेष नजरो से
निहार सब और

उड़ जाती हे फिर
अन्नत में तलाशने खुद को ..........



pravesh soni

1 comment:

  1. उड़ जाती है फिर ,
    अनंत में तलाशने ख़ुद को।

    बहुत सुन्दर दर्द से लबरेज़ कविता , बधाई।

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