Thursday, February 28, 2013


प्रेम ......
माने ढाई आखर ...
कितनी स्याही बीती इन्हे लिखने में ...
कितनी ही कलम लालायित है आज भी इन्हें लिखने को ..
वर्णों ,छंदों ,पंथो ,ग्रंथो में ,
गाई इसकी अनुपम गाथा ..
अनेक प्रतिबिम्बों में उलझा हुआ ,एक शाश्वत सत्य
प्रेम ...
मौसम ने बदल – बदल कर रिझाया इसे ,
मानो मौसम की ही उपज हो प्रेम ...
प्रकृति साज़ छेड़ती है ,और गा उठती इसके गीत ..
चाँद ,खुशबु ,पुष्प ,भ्रमर, हवा,खग ,लहर की जुबां से
मानो धर लिया हो इन्होने ही आका र प्रेम का ..
विधाता ने रचा प्रेम ..कहा
मुझे पाने की राह हे
प्रेम ...
विधाता को पाना ,और प्रेम को पाना सम ही तो हे ..
ऐसा रंग की दूजा न कोई रंग चढ़े ...
जो भीगा उसने पाया .
और पाने की चाह में खुद को खोया ..

कहा किसी ने ..
आँखों का महाकाव्य हे ,
लेकिन बंद आँखों की जोत है
प्रेम ....
प्रेम पंडितो ने गुरुओ ने बाँट दिया ,
भिन्न- भिन्न वृतो में इसको ..
लेकिन हर वृत प्रेम परिधि में ही घुमाता मिला
ह्रदय की कोमलतम कल्पना का आयाम है
प्रेम ...
दो नैनो से दरस न होए इसका ,...
मन की आँखों से दिखे
प्रेम ....
आह ...कितना जटिल तुझे समझना ,पाना
प्रेम ..
भीगा इक अहसास छू गया मन को .
उसकी आँखों का सहरा ,
तप गया मेरी आँखों में जब से ..
उसके होंटो का मधुबन महक गया
होंटो पे मेरे जब से ...
बस में जान गई .....
प्रेम तुम मुझमे हो ...
हां हां में प्रेममय हो गई तब से ...!!!


pravesh soni