Monday, October 7, 2013
Tuesday, August 20, 2013
चुप रहना आदत नहीं थी ...
बचाए थे शब्द ,
लौटा दूंगी प्रेम का ब्याज जोड़ कर
तुम्हारे उलाहने पर
कभी तो कहोगे
“बहुत चुप –चुप रहती हो तुम “
ठीक उसी तरह
जब पहले मेरी आवाज सुनने की बचैनी में कहते थे तुम .....
सुन कर बरस जाते थे प्रीत के फूल मेरी बातों में ......
और तुम्हारे उलाहने सुनने को
अक्क्सर चुप हो जाया करती थी ...!!
पर अब तुम्हारे उलाहने ही चुप कर देते है
ब्याज जुड़ नहीं पाया ,
कोरी बचत कब तक चलती ...
बचे शब्द चुक गए चुप रहने में ..
अच्छा है
चुप्पी अब आदत बन गई
आदतो से निभाह हो जाती है
तुम्हारे उलाहने की धूप में
कभी छट जाये शायद
यह चुप रहने की आदत का कुहासा ....!!!
pravesh soni
बचाए थे शब्द ,
लौटा दूंगी प्रेम का ब्याज जोड़ कर
तुम्हारे उलाहने पर
कभी तो कहोगे
“बहुत चुप –चुप रहती हो तुम “
ठीक उसी तरह
जब पहले मेरी आवाज सुनने की बचैनी में कहते थे तुम .....
सुन कर बरस जाते थे प्रीत के फूल मेरी बातों में ......
और तुम्हारे उलाहने सुनने को
अक्क्सर चुप हो जाया करती थी ...!!
पर अब तुम्हारे उलाहने ही चुप कर देते है
ब्याज जुड़ नहीं पाया ,
कोरी बचत कब तक चलती ...
बचे शब्द चुक गए चुप रहने में ..
अच्छा है
चुप्पी अब आदत बन गई
आदतो से निभाह हो जाती है
तुम्हारे उलाहने की धूप में
कभी छट जाये शायद
यह चुप रहने की आदत का कुहासा ....!!!
pravesh soni
बहुत बोलती है औरते
=============
बहुत बोलती है औरते ,
जहाँ कही भी मिल बैठी,
बोलती है बोलना शुरू हो तो थमता नहीं क्रम ..
फिर भी कह नहीं पाती अपनी बात
शायद सीखा नहीं कहना ,
बावजूद इसके कि बहुत बोलती है ....
जाने कितनी सदियों से देह का दर्द देह मै समेटे ,
मज़े में होना दर्शाती है औरते
सीखा यही तो था ...
कोई कलम संवेदनाओ की
उस परत तक नहीं पहुच पाई
जिसमे छिपा सच यह भोगती तो है
लेकिन कहन में असमर्थ है,
यह भोगा हुआ सच निशब्द है ....
कैसे कहती फिर यह .....,
हां बोलती है उस झूठ को
जिसे सच बनाने की जद्द में
खुद से बेदखल होती जाती है ..
हां बहुत बोलती है औरते ,
बस कह नहीं पाती
माथे की उन सलवटो को जो कब उम्र को बुढा देती है
जिंदगी के पन्नो को पलटते -पलटते
नसों में आये तनाव के कारण ,...
हां बहुत बोलती है औरते
बस उन सपनों को नहीं कह पाती
जो आँखों में आकर छल जाते है उसकी नींद ...
और बेपहर उठ कर बुहारने लग जाती है आँगन ,
कि कब कोई सपना आ बैठे उससे बतियाने .
और जब नहीं बोलती है
तब खामोश हो जाती है औरते ,...
खामोश होना भी तो औरत होना ही है
तब उनसे भी ज्यादा बोलती है
उनकी खामोशी .....!!!
pravesh soni
— =============
बहुत बोलती है औरते ,
जहाँ कही भी मिल बैठी,
बोलती है बोलना शुरू हो तो थमता नहीं क्रम ..
फिर भी कह नहीं पाती अपनी बात
शायद सीखा नहीं कहना ,
बावजूद इसके कि बहुत बोलती है ....
जाने कितनी सदियों से देह का दर्द देह मै समेटे ,
मज़े में होना दर्शाती है औरते
सीखा यही तो था ...
कोई कलम संवेदनाओ की
उस परत तक नहीं पहुच पाई
जिसमे छिपा सच यह भोगती तो है
लेकिन कहन में असमर्थ है,
यह भोगा हुआ सच निशब्द है ....
कैसे कहती फिर यह .....,
हां बोलती है उस झूठ को
जिसे सच बनाने की जद्द में
खुद से बेदखल होती जाती है ..
हां बहुत बोलती है औरते ,
बस कह नहीं पाती
माथे की उन सलवटो को जो कब उम्र को बुढा देती है
जिंदगी के पन्नो को पलटते -पलटते
नसों में आये तनाव के कारण ,...
हां बहुत बोलती है औरते
बस उन सपनों को नहीं कह पाती
जो आँखों में आकर छल जाते है उसकी नींद ...
और बेपहर उठ कर बुहारने लग जाती है आँगन ,
कि कब कोई सपना आ बैठे उससे बतियाने .
और जब नहीं बोलती है
तब खामोश हो जाती है औरते ,...
खामोश होना भी तो औरत होना ही है
तब उनसे भी ज्यादा बोलती है
उनकी खामोशी .....!!!
pravesh soni
Thursday, February 28, 2013
प्रेम ......
माने ढाई आखर ...
कितनी स्याही बीती इन्हे लिखने में ...
कितनी ही कलम लालायित है आज भी इन्हें लिखने को ..
वर्णों ,छंदों ,पंथो ,ग्रंथो में ,
गाई इसकी अनुपम गाथा ..
अनेक प्रतिबिम्बों में उलझा हुआ ,एक शाश्वत सत्य
प्रेम ...
मौसम ने बदल – बदल कर रिझाया इसे ,
मानो मौसम की ही उपज हो प्रेम ...
प्रकृति साज़ छेड़ती है ,और गा उठती इसके गीत ..
चाँद ,खुशबु ,पुष्प ,भ्रमर, हवा,खग ,लहर की जुबां से
मानो धर लिया हो इन्होने ही आका र प्रेम का ..
विधाता ने रचा प्रेम ..कहा
मुझे पाने की राह हे
प्रेम ...
विधाता को पाना ,और प्रेम को पाना सम ही तो हे ..
ऐसा रंग की दूजा न कोई रंग चढ़े ...
जो भीगा उसने पाया .
और पाने की चाह में खुद को खोया ..
कहा किसी ने ..
आँखों का महाकाव्य हे ,
लेकिन बंद आँखों की जोत है
प्रेम ....
प्रेम पंडितो ने गुरुओ ने बाँट दिया ,
भिन्न- भिन्न वृतो में इसको ..
लेकिन हर वृत प्रेम परिधि में ही घुमाता मिला
ह्रदय की कोमलतम कल्पना का आयाम है
प्रेम ...
दो नैनो से दरस न होए इसका ,...
मन की आँखों से दिखे
प्रेम ....
आह ...कितना जटिल तुझे समझना ,पाना
प्रेम ..
भीगा इक अहसास छू गया मन को .
उसकी आँखों का सहरा ,
तप गया मेरी आँखों में जब से ..
उसके होंटो का मधुबन महक गया
होंटो पे मेरे जब से ...
बस में जान गई .....
प्रेम तुम मुझमे हो ...
हां हां में प्रेममय हो गई तब से ...!!!
pravesh soni
—माने ढाई आखर ...
कितनी स्याही बीती इन्हे लिखने में ...
कितनी ही कलम लालायित है आज भी इन्हें लिखने को ..
वर्णों ,छंदों ,पंथो ,ग्रंथो में ,
गाई इसकी अनुपम गाथा ..
अनेक प्रतिबिम्बों में उलझा हुआ ,एक शाश्वत सत्य
प्रेम ...
मौसम ने बदल – बदल कर रिझाया इसे ,
मानो मौसम की ही उपज हो प्रेम ...
प्रकृति साज़ छेड़ती है ,और गा उठती इसके गीत ..
चाँद ,खुशबु ,पुष्प ,भ्रमर, हवा,खग ,लहर की जुबां से
मानो धर लिया हो इन्होने ही आका र प्रेम का ..
विधाता ने रचा प्रेम ..कहा
मुझे पाने की राह हे
प्रेम ...
विधाता को पाना ,और प्रेम को पाना सम ही तो हे ..
ऐसा रंग की दूजा न कोई रंग चढ़े ...
जो भीगा उसने पाया .
और पाने की चाह में खुद को खोया ..
कहा किसी ने ..
आँखों का महाकाव्य हे ,
लेकिन बंद आँखों की जोत है
प्रेम ....
प्रेम पंडितो ने गुरुओ ने बाँट दिया ,
भिन्न- भिन्न वृतो में इसको ..
लेकिन हर वृत प्रेम परिधि में ही घुमाता मिला
ह्रदय की कोमलतम कल्पना का आयाम है
प्रेम ...
दो नैनो से दरस न होए इसका ,...
मन की आँखों से दिखे
प्रेम ....
आह ...कितना जटिल तुझे समझना ,पाना
प्रेम ..
भीगा इक अहसास छू गया मन को .
उसकी आँखों का सहरा ,
तप गया मेरी आँखों में जब से ..
उसके होंटो का मधुबन महक गया
होंटो पे मेरे जब से ...
बस में जान गई .....
प्रेम तुम मुझमे हो ...
हां हां में प्रेममय हो गई तब से ...!!!
pravesh soni
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