बहुत बोलती है औरते
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बहुत बोलती है औरते ,
जहाँ कही भी मिल बैठी,
बोलती है बोलना शुरू हो तो थमता नहीं क्रम ..
फिर भी कह नहीं पाती अपनी बात
शायद सीखा नहीं कहना ,
बावजूद इसके कि बहुत बोलती है ....
जाने कितनी सदियों से देह का दर्द देह मै समेटे ,
मज़े में होना दर्शाती है औरते
सीखा यही तो था ...
कोई कलम संवेदनाओ की
उस परत तक नहीं पहुच पाई
जिसमे छिपा सच यह भोगती तो है
लेकिन कहन में असमर्थ है,
यह भोगा हुआ सच निशब्द है ....
कैसे कहती फिर यह .....,
हां बोलती है उस झूठ को
जिसे सच बनाने की जद्द में
खुद से बेदखल होती जाती है ..
हां बहुत बोलती है औरते ,
बस कह नहीं पाती
माथे की उन सलवटो को जो कब उम्र को बुढा देती है
जिंदगी के पन्नो को पलटते -पलटते
नसों में आये तनाव के कारण ,...
हां बहुत बोलती है औरते
बस उन सपनों को नहीं कह पाती
जो आँखों में आकर छल जाते है उसकी नींद ...
और बेपहर उठ कर बुहारने लग जाती है आँगन ,
कि कब कोई सपना आ बैठे उससे बतियाने .
और जब नहीं बोलती है
तब खामोश हो जाती है औरते ,...
खामोश होना भी तो औरत होना ही है
तब उनसे भी ज्यादा बोलती है
उनकी खामोशी .....!!!
pravesh soni
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बहुत बोलती है औरते ,
जहाँ कही भी मिल बैठी,
बोलती है बोलना शुरू हो तो थमता नहीं क्रम ..
फिर भी कह नहीं पाती अपनी बात
शायद सीखा नहीं कहना ,
बावजूद इसके कि बहुत बोलती है ....
जाने कितनी सदियों से देह का दर्द देह मै समेटे ,
मज़े में होना दर्शाती है औरते
सीखा यही तो था ...
कोई कलम संवेदनाओ की
उस परत तक नहीं पहुच पाई
जिसमे छिपा सच यह भोगती तो है
लेकिन कहन में असमर्थ है,
यह भोगा हुआ सच निशब्द है ....
कैसे कहती फिर यह .....,
हां बोलती है उस झूठ को
जिसे सच बनाने की जद्द में
खुद से बेदखल होती जाती है ..
हां बहुत बोलती है औरते ,
बस कह नहीं पाती
माथे की उन सलवटो को जो कब उम्र को बुढा देती है
जिंदगी के पन्नो को पलटते -पलटते
नसों में आये तनाव के कारण ,...
हां बहुत बोलती है औरते
बस उन सपनों को नहीं कह पाती
जो आँखों में आकर छल जाते है उसकी नींद ...
और बेपहर उठ कर बुहारने लग जाती है आँगन ,
कि कब कोई सपना आ बैठे उससे बतियाने .
और जब नहीं बोलती है
तब खामोश हो जाती है औरते ,...
खामोश होना भी तो औरत होना ही है
तब उनसे भी ज्यादा बोलती है
उनकी खामोशी .....!!!
pravesh soni
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