Tuesday, August 20, 2013

चुप रहना आदत नहीं थी ...
बचाए थे शब्द ,
लौटा दूंगी प्रेम का ब्याज जोड़ कर
तुम्हारे उलाहने पर
कभी तो कहोगे
“बहुत चुप –चुप रहती हो तुम “
ठीक उसी तरह
जब पहले मेरी आवाज सुनने की बचैनी में कहते थे तुम .....
सुन कर बरस जाते थे प्रीत के फूल मेरी बातों में ......
और तुम्हारे उलाहने सुनने को
अक्क्सर चुप हो जाया करती थी ...!!

पर अब तुम्हारे उलाहने ही चुप कर देते है

ब्याज जुड़ नहीं पाया ,
कोरी बचत कब तक चलती ...
बचे शब्द चुक गए चुप रहने में ..
अच्छा है
चुप्पी अब आदत बन गई
आदतो से निभाह हो जाती है

तुम्हारे उलाहने की धूप में
कभी छट जाये शायद
यह चुप रहने की आदत का कुहासा ....!!!

pravesh soni

बहुत बोलती है औरते
=============
बहुत बोलती है औरते ,
जहाँ कही भी मिल बैठी,
बोलती है बोलना शुरू हो तो थमता नहीं क्रम ..
फिर भी कह नहीं पाती अपनी बात
शायद सीखा नहीं कहना ,
बावजूद इसके कि बहुत बोलती है ....

जाने कितनी सदियों से देह का दर्द देह मै समेटे ,
मज़े में होना दर्शाती है औरते
सीखा यही तो था ...

कोई कलम संवेदनाओ की
उस परत तक नहीं पहुच पाई
जिसमे छिपा सच यह भोगती तो है
लेकिन कहन में असमर्थ है,
यह भोगा हुआ सच निशब्द है ....
कैसे कहती फिर यह .....,

हां बोलती है उस झूठ को
जिसे सच बनाने की जद्द में
खुद से बेदखल होती जाती है ..

हां बहुत बोलती है औरते ,
बस कह नहीं पाती
माथे की उन सलवटो को जो कब उम्र को बुढा देती है
जिंदगी के पन्नो को पलटते -पलटते
नसों में आये तनाव के कारण ,...

हां बहुत बोलती है औरते
बस उन सपनों को नहीं कह पाती
जो आँखों में आकर छल जाते है उसकी नींद ...
और बेपहर उठ कर बुहारने लग जाती है आँगन ,
कि कब कोई सपना आ बैठे उससे बतियाने .
और जब नहीं बोलती है
तब खामोश हो जाती है औरते ,...
खामोश होना भी तो औरत होना ही है
तब उनसे भी ज्यादा बोलती है
उनकी खामोशी .....!!!


pravesh soni