Wednesday, December 21, 2011


चले जा रहे हो तुम
काँधे पर लाधे
दुखों की सलीब
उजाड ,ऊसर राहों में ...
आँखों का खार
पीते हुए
सुस्ताने को नहीं
कही सूखी ड़ाल की भी छाँव
साया बन हू साथ
सहला रही हू
तुम्हारी अन्तर वेदना
देख रही हू तुम्हे
लड़ते हुए हालातों से ..
रफ्ता –रफ्ता कर रहे है
चोट पर चोट,
तुम्हे तोड़ने के लिए
जो दिनो –दिन
होते जा रहे है दूभर ..
जानती हू में
तुम पारद नहीं लोह हो
बिखरता नहीं जो ....
और मजबूत होता हे
चोट खाकर .....

जी चाहता है
उतार फेकू कही दूर बहुत दूर
इस सलीब को
जो पल-पल झुकाए जारही है
तुम्हारे काँधे
पपडाए होंटो पर
हँसी की नमी फेर दू ,.

पर जानती हू,
केसे हँस सकते हो तुम
कटुक्ष सच्चाइयो के
कठोर क्रदन के बीच ..
प्रीत की हो चुकी हो जेसे
अप्रत्याशित मौत ..

तह पर तहे जमती
जारही हे दर्द की
और धसते जा रहे हो तुम
उनमे नीचे और नीचे
हवा बन बहती रहूंगी
उन तहों में ..
ताकि घुटन में सांस ले सके
मरती हुई प्रीत अपनी ....!!!!

प्रवेश सोनी

Friday, December 9, 2011


तपते हुए दिन से विदा ले सूरज . आ खड़ा सांझ की देहरी पर .. इठला कर सांझ ने लहराया आँचल...... अलसाई रात ने सिलवटो में समेटे सपने .. सिंदूरी साँसों ने स्वर साधे भीगा भीगा मन नटराज हुआ .... फलक से जमी तक झरता रहा , प्रीत का हरसिंगार .. प्यास ने पिघला दिए सारे ओंस कण .... अंधेरो ने मुस्कराकर रच दिए महा काव्य ... उड़ चला प्रीत का पाखी ले एक सुहानी भोर ...!!!

प्रवेश सोनी

Saturday, October 29, 2011


सोचा आज,
तनहाई लिखू ..
कुछ महक हे ,
खुशबु है ,
लम्हों का
सीलापन भी हे ..
मगर शोर हे बहुत ,
गुम है शब्द जिसमे ,
प्रस्तर से चोट देते ,
सन्नाटे ....
गूंजती हे
अधूरी ख्वाहिशो की चीखे ..
फिर टूट जाती हे तनहाई
टप-टप गिरती
आंसुओ
की बूंदों से .....
और कलम लिख देती हे
कागज पर सिर्फ ,
तेरा नाम ....!!!!


प्रवेश सोनी

Sunday, October 16, 2011


एक स्त्री
जब जन्म देती हे
स्त्री बीज को ,
नहीं बजती है थाली ..
नहीं बटते हे पताशे ...
सोहर के गीत
घुट जाते हे गले में ...
मुँह मोड लेती हे बधाईया ,
द्वार से ही ....

उपालंभ ,उपेक्षा के पानी से
सिंचित हो लेता हे आकार
वह बीज ,एक स्त्री का
तब दान कर दिया जाता हे
एक पुरुष के हाथ ..
एक पुरुष बीज जनने के लिए

सफल हो जाती हे तो
पाती हे उपहार
एक कुशल दास की भाति...
जो करता हे
प्रत्येक कार्य निपुणता और सजगता से
मालिक की इच्छानुसार ..

आज्ञा की अवज्ञा का नहीं हे साहस उसे ...
असफलता की गति
होती बस प्रताडना ...

कोनसा बीज ले जन्म
हे यह प्रकृति के वश ....
ना जाने क्यों दोषी ठहराई जाती
सिर्फ और सिर्फ एक स्त्री ..

स्वयं को ढोती हुई जीती हे
साँसों के त्राण तक
जला दी जाती हे
कभी साँसों के साथ ही
या खुद का बोझ ढोते ढोते ,
टूटती साँसों के बाद

पा ही जाती हे मोक्ष आखिर
धुआँ धुँआ जिंदगी
मौत का धुआँ होने के बाद ..
होती यही परिणति
एक स्त्री की ,
स्त्री बीज जनने के बाद ...!!!

Saturday, July 30, 2011


रिश्ता

कुछ कच्चे ,कुछ पक्के
कुछ झूठे ,कुछ सच्चे ...
रिश्तों के यह
सतरंगी धागे ...
मन का जुलाहा बुनता
सारी टूटी गांठे छुपाकर ....
बुना एक सुख स्वप्नों का बाना
शोख रंग से गूँथ –गूँथ कर ,
महमहाता रिश्ता सुहाना ,

जिसने गीतों को राग दिया ,
मीरा की वीणा,पायल का स्वरताल दिया
प्रीति –प्राण से मन वृन्दावन ,
साँसों ने पल –पल
अमृत पान किया ..
स्वर्ग सदन मन का आँगन
उड़ी उमंगें पर फेलाकर

विश्वासों ने नूतन आयाम लिया
चिर निष्ठां के सेतु से
सदियों के सुख को पल में
मन से मन को बाँध लिया ...

प्रवेश सोनी

Tuesday, July 26, 2011


सफर


तुम और में ,साथ चले थे ...
विश्वास की राह पर ,
तय करने इक सफ़र...
पर सफ़र कोनसा ..??

तुम्हारी सोच
तुम तक ही सिमित थी ,
और मैंने उससे अलग होकर
सोचना ही नहीं सीखा .....
साहचर्य स्पंदन था
तुम्हारी कदम ताल से
प्रयासरत की सुर समागम
बना रहे अंत तक .....

तुम साथ तो थे ,
पर चले जा रहे थे
अपने भीतर के
स्म्रत- विस्मृत
भाव जगत मै रत
बिना पीछे मुड़े ....
और मै ..
तुम्हारे अबोले , असमझे भावोँ को
समझने मै ही खड़ी रह गई ..
तल्ख़ धुप में झुलसती ,
चाह रही हू तुम्हारे
अपनेपन का साया ,
उभर –उसर राह में .....

प्यासी धरा के तन सी
फट गई कदमो में बिवाईया,
चू रहा लहू बना रहा निशां
घिसटते कदमो के साथ ...
तुम और तुम्हारे कदमों के निशां
ओझल हो गए नज़रों से ...

कोनसे शब्दों के सम्मोहन से
पुकारू तुम्हें ,...
कि तनिक रुक कर सुनो मुझे,
बता सको कि
कहा छूट गई विश्वास कि राह ...
तुम्हारी राह तकते हुए
खड़े हे राह में है
घायल कदम मेरे
आस लिए ...
फिर नए सफ़र में
चलोगे संग तुम मेरे !!!!


प्रवेश सोनी

Wednesday, June 8, 2011

MY CREATION

MY CREATION

सृष्टा हो गया मीत ....
*********************


मौन अभिव्यक्त हुआ ,
साँसे हुई वाचाल .....
समर्पण की साध में
फेले स्नेहिल बाहुपाश ....
रक्ताभ क्षितिज पर
छाया धानी आँचल ...
बेकल चाँद पर बरसे ,
बादल के भीगे उच्चारण ...
साँसों की सरगम पर ,
गूंजे मनुहारो के गीत ...
अनुबंधों के द्वार खोलकर
उन्मत हो गई प्रीत
अर्पित हुआ मन ,
सम्पूर्ण समर्पण में ....
तारे बीन लिए आँचल में
राग –स्वरों की संगत में ....
अपनेपन ने सपनों की
गागर भर ली ...
प्रीत संदर्भो के गीत रचाकर ,
सृष्टा हो गया मीत ....


प्रवेश सोनी

Thursday, May 26, 2011


आवाज़
**********
पुकारती
सर्द आवाज़ ,
चीरती हे कुहासे को ..
साये निगलने वाली
धुंध .
चारों और ढाप लेती हे ....

आवाज़ का एक पहलु
भारी वेगवती हवा सा ...,
दूसरा बहुत सूक्ष्म ,
उदास पवन की तरह ,
पवन से अपने अस्तित्व का
सबूत चुराता हुआ ...

शांय – शांय सी गूंज
होती अरण्य में ,
पिघलते शीशे की तरह
उतरती कानो में ......

बार बार झरती होंटो से
पीले पत्तों की तरह
उग आते बोल ,
फिर हरे पत्तों से ..

अपनी ही आवाजों
के पीछे भागती
मृग मरीचिका सी
तुम्हें पुकारती हुई
खो देती हू
चाह के भँवर में
अपनी ही आवाज़ .....!!!


प्रवेश सोनी

Thursday, May 5, 2011


दर्द


जिद्दी बच्चे की तरह
बैठा हे मन में दर्द ,
अपना परिचय देने को
उद्धिग्न हो ,
आता हे बार बार चेहरे पर ..
बहने को आतुर हे
अश्रु धारे बन ...

नादां नहीं जनता
कोई नहीं होता परिचित,
सेतु बाँधे ,नहीं होता अपना सा
नहीं जनता यह
दिखावे का अपनापा
और बढा देता इसका आकार

बहुत बड़े साये हे इसके
काले ,भयावह अंधियारे से ..
दूर करने को इन्हें ,
उधार के चंद कतरे ,लिए रौशनी के
जाना नहीं ,पर सुना था
रौशनी से ही हारता हे अंधियारा ....
पर केसे ??

यह तो था बड़ा गुढ़ ग्यानी
जनता था ,उधार का उजास
कितने पल का ...!!
दमक कर एक और लकीर
जोड़ देगा मुझमे अंधियारे की ...

सच्ची खुशी का आलोक तो
उमगता हे मन में स्वत ही
जो अब असंभव सा लगता हे ..
क्योकि मरू सा हे मन प्रदेश
चटके पत्थरो की लकीरों में भी
नहीं उगती हे हरी घास
व्यर्थ बितता पल पल
निराधार विचारों के दलदल में
खानाबदोश सी ख्वाहिशे ,तोड़ देती हे

टूटेपन को जोड़ रहा हे
दर्द, अपनेपन से ....
सारे साब –असबाब इसके
सजा कर
दिया विराम चिन्ह
हंसी के आवरण में लपेट
ताकि कोई पहचान कर
ना बढा दे इसका आकार


प्रवेश सोनी

Saturday, April 30, 2011


नदी हू में
**************

चीर कर दृढ पर्वत को
प्रवाहित हू में .....
बहना ही हे वृति मेरी
निरंतर ,..

प्रीत का प्रपात बन
मचलता नीर मेरा ..
इत उत् छलकता
सपनो का सोता ..
वात्सल्य से लबालब
बूंद –बूंद मेरी ..
तृप्त होती हर ओंक

बहना हे अनवरत
बंधन
सुख नहीं देते
उथला देते जल मेरा ,
निरा वेग से
उच्छल उर्मिया
सहलाती तट को ,
अलोकिक समर्पण साध
महा प्रयाण
उत्कल उदधि में
निश्चित लक्ष्य पथ ..
ना बाँधो मुझे ,बहने दो
नदी हू में ,
रागरत बहने दो ...!!!


प्रवेश सोनी

Friday, April 22, 2011


अनुगूँज
**********

खामोशियो के कोलाहल में
आकंठ डूबे हे ...

कहना भी हे
और सुनना भी ....

पर
चाहत की अनुगूँज
लोट आती हे
दूर बहुत दूर
अहं के पहाडों से टकरा कर ..

गहरी खाइयों में
समा जाती हे ...

अनिश्चित दिशाओ में
भटकता मन
दीन मलिन सा ..

चोटिल हो
रिसता पल – पल.....

सुन लो मेरी
ख़ामोशी की आवाजे ..

गुम न हो जाऊ
इस शोर में ...
टकरा कर पत्थर से
पत्थर ना हो जाऊ कही ...

प्रवेश सोनी

Friday, March 18, 2011


तुझ बिन केसी मेरी होली
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केसे थामू आँचल
बैरी उड़ उड़ जावे
मादक पवन के मस्त झकोरे
नीले ,पीले रंग उडावे

उर उमंग फागुनी ,
मन बोराया ,तन शरमाया ..
यादों की मनुहारो ने ,
पल पल तुझे बुलाया ....

परदेशी तुझ बिन केसी मेरी होली
सतरंगी रंगों ने मेरा तन झुलसाया ...
लाल ,हरा ,न पीला ,जाफरानी
मोहे तेरी प्रीत का ही रंग भाया ....

मधुर –मधुर मधुप की गुंजन
सुन- सुन मन विषाद समाया ....
नंदन ,कानन ,उपवन –उपवन
टेसू चंपा से गरनाया...

मुझ बिरहन को भाये न कुछ
लागे ,सबने मोहे चिढाया ...

प्रीत –प्रीत में भीगे हमजोली ,
सखी लिपट कर करे ठिठोली
बेरन अंखियों ने सपनों का नीर बहाया ...

तुझ बिन साजन ना
मन कोई त्यौहार मनावे ,
तू संग हो तो
हर दिन मेरा होली हो जावे ....

प्रवेश सोनी
*************

Saturday, March 5, 2011


बटोही


उजले पैरो से
खुद को समेट कर
धुप
सांझ के
आगोश में
सुनहरी हो गई ,!!

सितारों की
जमीं पर
रात ने
रचे छंद
मधुबन के ..!!

चाँद की
देह में
जल उठे
कई सूरज !!

समंदर को
सुखा देने
वाली प्यास
खड़ी हे
चोखट पर
जलाये नजरो के दीये..!!

गया था जो
इस राह से ,
लोट कर कब ,
आएगा वो बटोही ??

प्रवेश सोनी

Thursday, March 3, 2011


शब्द ,
रचते हे तुम्हे
मन ही मन
प्रभाती से
गुनगुना कर ,
कुनकुनी धुप से
उतरते हो आँगन में ..
सहेज लेती हूँ
उष्णता तुमारी ,
रोम –रोम में
भर लेती हू तुम्हे
पहर –पहर बांचती हू
सुबह से शाम तलक ..
सोच की चादर ओढ़ ,
स्वप्न सिरहाने रख
भीग जाती हू चाँदनी में ..
स्नेह झरता हे
हरसिंगार बन ,
मन भ्रमर पीता मकरंद .....
चाहत की रुबाई बन
शब्दों में ढल ,
बन जाते हो तुम कविता .....


प्रवेश सोनी

Monday, February 28, 2011

समेट लो मुझे


कितने समंदर हे तेरी आँखों में
मन मेरा
लहरों की तरह उछलता रहा
डूबना चाहा तह तक
पाना चाहा अनमोल रत्न
प्रेम ,प्रीत ,स्नेह समर्पण के ,
पर तुम न जाने कोनसी
पीड़ा का गरल पी कर
मृदु प्रीत को खार में
बदल रहे हो ,
क्षत –विक्षत कर बैठे हो
सम्पूर्ण राग को ,
मै इस खार को
अपनी आँखों में भर ,
तुम्हारे अंतस में
भरना चाहती हू मृदुलता
गीत सुमनों से
सुगन्धित करना चाहती हू
तुम्हे ...
समेट लो मुझे अपने मै .
तुम्हारी कटुता का भँवर
मुझे तट तक भी नहीं जाने देता
और नहीं जाने देता तह तक ....


प्रवेश सोनी

Friday, January 21, 2011




बेटियाँ
*************

सुकोमल खिलती कलीयो सी
महक हे मेरे गुलशन की
चहकती चिडियों सी
सरगम हे मेरे जीवन की
ओंस की बूँद सी चमकती हे
मन के भाव पत्तों पर
बचपन के देखे सपने
आँखों में सजा
उड़ रही हे पंख फेलाए
मनमें लिए सफलता की आशा
चाँद तारो को छूने की अभिलाषा
मंजिलों की और हे कदम ....

सुने घर में
इधर उधर पसरी हे
बस उनकी यादेँ
बेटियाँ गुनगुनाती हे
खामोश आँगन में
शीतल हवा सी सरसराती हे
जब दूर हो जाती हे घर से
बेटियाँ बहुत याद आती हे
बातों बातों में उनकी बाते
आँखों के पोरों तक आजाती हे
पतवार बन खे रही हू
जाने क्यों यह नैया उस पार हो जाती हे

प्रवेश सोनी

Monday, January 10, 2011


घरोंदा



गीली रेत
पाँव पर थाप
बनाये थे ....
उस उम्र ने घरोंदे .......
शंख ,सीपी ,फूल ,पत्ते भर से
सज जाते थे बस .......
खेल –खेल में
सहज ही तोड़ दिए जाते
वह उम्र थी नादाँ ,
और थी घरोंदे के बाहर....

अब
भाव भूमि पर
मन ...
कभी असहज ,झुझलाकर
उच्छल महानद सा
टकराता हे बस दीवारों से ...
परिणति हे यही उसकी ,
क्योकि उम्र अब हे भीतर
नहीं निकाल पाती हे
पाँव अब
घरोंदे से बाहर .....

प्रवेश सोनी