Monday, January 10, 2011


घरोंदा



गीली रेत
पाँव पर थाप
बनाये थे ....
उस उम्र ने घरोंदे .......
शंख ,सीपी ,फूल ,पत्ते भर से
सज जाते थे बस .......
खेल –खेल में
सहज ही तोड़ दिए जाते
वह उम्र थी नादाँ ,
और थी घरोंदे के बाहर....

अब
भाव भूमि पर
मन ...
कभी असहज ,झुझलाकर
उच्छल महानद सा
टकराता हे बस दीवारों से ...
परिणति हे यही उसकी ,
क्योकि उम्र अब हे भीतर
नहीं निकाल पाती हे
पाँव अब
घरोंदे से बाहर .....

प्रवेश सोनी

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