Thursday, March 3, 2011


शब्द ,
रचते हे तुम्हे
मन ही मन
प्रभाती से
गुनगुना कर ,
कुनकुनी धुप से
उतरते हो आँगन में ..
सहेज लेती हूँ
उष्णता तुमारी ,
रोम –रोम में
भर लेती हू तुम्हे
पहर –पहर बांचती हू
सुबह से शाम तलक ..
सोच की चादर ओढ़ ,
स्वप्न सिरहाने रख
भीग जाती हू चाँदनी में ..
स्नेह झरता हे
हरसिंगार बन ,
मन भ्रमर पीता मकरंद .....
चाहत की रुबाई बन
शब्दों में ढल ,
बन जाते हो तुम कविता .....


प्रवेश सोनी

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