Tuesday, July 26, 2011
सफर
तुम और में ,साथ चले थे ...
विश्वास की राह पर ,
तय करने इक सफ़र...
पर सफ़र कोनसा ..??
तुम्हारी सोच
तुम तक ही सिमित थी ,
और मैंने उससे अलग होकर
सोचना ही नहीं सीखा .....
साहचर्य स्पंदन था
तुम्हारी कदम ताल से
प्रयासरत की सुर समागम
बना रहे अंत तक .....
तुम साथ तो थे ,
पर चले जा रहे थे
अपने भीतर के
स्म्रत- विस्मृत
भाव जगत मै रत
बिना पीछे मुड़े ....
और मै ..
तुम्हारे अबोले , असमझे भावोँ को
समझने मै ही खड़ी रह गई ..
तल्ख़ धुप में झुलसती ,
चाह रही हू तुम्हारे
अपनेपन का साया ,
उभर –उसर राह में .....
प्यासी धरा के तन सी
फट गई कदमो में बिवाईया,
चू रहा लहू बना रहा निशां
घिसटते कदमो के साथ ...
तुम और तुम्हारे कदमों के निशां
ओझल हो गए नज़रों से ...
कोनसे शब्दों के सम्मोहन से
पुकारू तुम्हें ,...
कि तनिक रुक कर सुनो मुझे,
बता सको कि
कहा छूट गई विश्वास कि राह ...
तुम्हारी राह तकते हुए
खड़े हे राह में है
घायल कदम मेरे
आस लिए ...
फिर नए सफ़र में
चलोगे संग तुम मेरे !!!!
प्रवेश सोनी
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