Thursday, May 5, 2011


दर्द


जिद्दी बच्चे की तरह
बैठा हे मन में दर्द ,
अपना परिचय देने को
उद्धिग्न हो ,
आता हे बार बार चेहरे पर ..
बहने को आतुर हे
अश्रु धारे बन ...

नादां नहीं जनता
कोई नहीं होता परिचित,
सेतु बाँधे ,नहीं होता अपना सा
नहीं जनता यह
दिखावे का अपनापा
और बढा देता इसका आकार

बहुत बड़े साये हे इसके
काले ,भयावह अंधियारे से ..
दूर करने को इन्हें ,
उधार के चंद कतरे ,लिए रौशनी के
जाना नहीं ,पर सुना था
रौशनी से ही हारता हे अंधियारा ....
पर केसे ??

यह तो था बड़ा गुढ़ ग्यानी
जनता था ,उधार का उजास
कितने पल का ...!!
दमक कर एक और लकीर
जोड़ देगा मुझमे अंधियारे की ...

सच्ची खुशी का आलोक तो
उमगता हे मन में स्वत ही
जो अब असंभव सा लगता हे ..
क्योकि मरू सा हे मन प्रदेश
चटके पत्थरो की लकीरों में भी
नहीं उगती हे हरी घास
व्यर्थ बितता पल पल
निराधार विचारों के दलदल में
खानाबदोश सी ख्वाहिशे ,तोड़ देती हे

टूटेपन को जोड़ रहा हे
दर्द, अपनेपन से ....
सारे साब –असबाब इसके
सजा कर
दिया विराम चिन्ह
हंसी के आवरण में लपेट
ताकि कोई पहचान कर
ना बढा दे इसका आकार


प्रवेश सोनी

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