Sunday, October 16, 2011


एक स्त्री
जब जन्म देती हे
स्त्री बीज को ,
नहीं बजती है थाली ..
नहीं बटते हे पताशे ...
सोहर के गीत
घुट जाते हे गले में ...
मुँह मोड लेती हे बधाईया ,
द्वार से ही ....

उपालंभ ,उपेक्षा के पानी से
सिंचित हो लेता हे आकार
वह बीज ,एक स्त्री का
तब दान कर दिया जाता हे
एक पुरुष के हाथ ..
एक पुरुष बीज जनने के लिए

सफल हो जाती हे तो
पाती हे उपहार
एक कुशल दास की भाति...
जो करता हे
प्रत्येक कार्य निपुणता और सजगता से
मालिक की इच्छानुसार ..

आज्ञा की अवज्ञा का नहीं हे साहस उसे ...
असफलता की गति
होती बस प्रताडना ...

कोनसा बीज ले जन्म
हे यह प्रकृति के वश ....
ना जाने क्यों दोषी ठहराई जाती
सिर्फ और सिर्फ एक स्त्री ..

स्वयं को ढोती हुई जीती हे
साँसों के त्राण तक
जला दी जाती हे
कभी साँसों के साथ ही
या खुद का बोझ ढोते ढोते ,
टूटती साँसों के बाद

पा ही जाती हे मोक्ष आखिर
धुआँ धुँआ जिंदगी
मौत का धुआँ होने के बाद ..
होती यही परिणति
एक स्त्री की ,
स्त्री बीज जनने के बाद ...!!!

2 comments:

  1. नारी विमर्श के अन्तर्गत स्वानुभूति और सहानुभूति पर चाहे कितनी ही बहस हम करते रहे.........पर इस सच्चाई से हमें मुँह नहीं मोङना चाहिए कि इस विमर्श ने समानता का लक्ष्य पाने के द्वार खोल दिये है.......प्रवेश जी एक कुशल चित्रकार तो है ही इनकी लेखनी के रंग भी अब न केवल गहराते जा रहे है प्रत्युत अपना स्पष्ट प्रभाव भी छोङते है..........उज्ज्वल भविष्य की शुभकामनाएं...

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  2. उम्मेद जी बहुत बहुत आभारी हू आपकी

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