Wednesday, November 10, 2010


फासलो के
फलसफे

अहम और स्वभिमान
का द्वंद

अनुपूरक होते रिश्ते
दरकती दीवारे

बनती
सपनों की कब्रगाह

स्याह अंधेरो में
चीखते उजाले

कब ,केसे होगी भोर

असमंजस
कब होगी उदय
मन क्षितिज पर
सुखो की लालिमा

कब क्षीण होगी
दुखो की तपन

एक बूंद
आशा का प्रकाश
सहला देती हे

शीतल चांदनी बन

उठता हे मन फिर

एक बार
मर कर जीने के लिए .....!!!


प्रवेश सोनी

2 comments:

  1. शीतल चांदनी बन उठता है मन फिर, एक बार मर कर जीने के लिये।

    बहुत ही सुन्दर दर्द भरी कविता जो मन को कहीं न कहीं से उद्वेलित करती है।

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  2. शुक्रिया डॉ. संजय जी

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