Sunday, March 8, 2015

टूटता है ,
बिखरता है ......

सब अस्त -व्यस्त हो जाता है
समेटना होता है
खुद को ही
तनहा अकेले अकेले

दूसरा कोई
समेटता नहीं
और बिखेर देता है
बिखराव अलगाव ना बने
इसलिये अलग -अलग
अवसर पर
होता है अलग -अलग मन
मन नहीं होते दो -चार
एक को बदल -बदल कर
अवसरवादी बना देती है
टूट कर जुड़े रहने की जिजीविषा

साँसों का साथ बना रहे
उल्लास के नन्हे परिंदे से
पर
नन्हा न जाने कब यौवन खोकर
वयोवृद् होने लगा है ।
परवाज़ तो है पर
आकाश नही रहा अब उसका
देखता है टूटे पर
और चारो और
मरे हुए लोगो को जिन्दा होने में शोकमग्न ...

जीवन एकांकी में परिदृष्य बदलते ही है ।।


प्रवेश सोनी
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