Sunday, March 8, 2015

भुरभुरे रिश्ते
बिखरी होती है इनकी मिटटी
कितने ही सनेह रस से गुथो इन्हें
स्वार्थ की धुप
इनकी मिटटी को तड़का देती है
बहुत सुन्दर आवरण से होते है ये ढके हुए
सत्य की हवाए इन्हें
कर ही देती है अनावरण
तभी नज़र आती हे इनकी
असली तासीर
छूने भर से ढेर हो जाते है
भुरभुरे रिश्ते
प्रेम की डोर
नहीं बाँध सकती इन्हें
प्रेम बेचारा पस्त हो जाता है
इनके बोझ से
थक हार कर
खड़ा हो जाता
ख़ामोशी से एक और
बहाता है अविरल नीर बस
अपनी आँखों से
रिश्तों की किरकिरी
चुभती है आँखों में जो उसके
मजबूर हताश ....
करे भी तो क्या
सिवा आँसू बहाने के
भुरभुरे रिश्तों की मौत पर .....
मौत तो होती ही है
तकलीफदेह
परन्तु रिश्तों की मौत स्वभाविक
नहीं होती ....
अदृष्य खतरनाक हथियारों से
हां हां हथियारों से क़त्ल किया जाता है
रिश्तों का ...
और कातिल होता है
स्वार्थ और दम्भ रत कोई अपना ही रिश्ता ...।



प्रवेश सोनी

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