Thursday, June 3, 2010


कँहा हे बेटी का बसेरा
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बेटी ने कहा
पिता से ,
बाबुल मेरे तुमने
भाई को दिया
घर बना के
मुझे भी दो
एक कमरा सजा के ,
पिता बोले
लाडो मेरी
तेरा यहाँ क्या हे ,
जाना हे
तुझे संग पिया के ,
मान कर
उनको अपना
सजाना
उनका घर अंगना ,
ख़ामोशी से
धेर्य रखकर
सजाये रुपहले
कुछ सपने मन में ,
कुछ जमी कुछ आसमान पाने
चली संग इक अजनबी के
इक नई दुनिया बसाने,
आँगन में पाँव
रखते ही
,कुछ दबी कुछ धीमी सी
आवाज़ आई ,
"दुसरे की जाई
आज घर हमारे आई "
तलाशती
नज़रे हर कोने में
अपनापन
क्या अस्तित्व हीन हे
बेटी का जन्म ?
बेटा इक वंश चालक
बेटी दो कुल तारक
सोचती -बाबुल का घर न मेरा
क्या यह भी हे बस एक रेनबसेरा ???

प्रवेश सोनी

3 comments:

  1. नारी विमर्श की सशक्त कविता..........ये सवाल सदियों से पूछे जाते रहे होंगे और विडम्बना ये है कि आज भी अनुत्तरित है.....नारी मन की पीङा का बयान करती सशक्त व सार्थक कविता हेतु बधाई।

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  2. THE BEST POEM SHOW THAT A GIRL HAVE TWO HOUSE BUT NO HAVE A SIGLE HOME . WHEN IT IS TRUE . VERY HARM FUL FOR SOCIETY . NO ONE HELP THESE GIRLS. TEARS ONLY TEARS . SANSITIVE POEM . CONGRATULATIONS . HASYA KAVI DHARMENDRASONI KOTA

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  3. sundar rachna.... sochne pe majboor karti ahi :) :)

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