Sunday, May 23, 2010


mai samander ho jati hu
तुम !!!
मचलते हो
अहं से उफनते हो,
सोचते हो ........
समाना हे मुझे
तुम्ही में
में !!!
समझती हु तुमारी
आकुलता,
जानती हु नीर से भरे हो
पर कितने प्यासे हो तुम
तुम असयंत से
व्याकुल होकर ,
तोड़ देते हो तट ,
पर नहीं आ पाते ........
पास मेरे


में ही आती हु
कत्तिन राहो ,पर्वतो को
लांघकर .....
अडिग शिलाये खंड खंड
हो जाती हे
वेग से मेरे
साथ बह कर
बन जाती हे शालिगराम
म्रदु जल लेकर आती हु
बुझाने तुमारी प्यास ,
प्रीत ही तो हे यह मेरी
समर्पण हे तुमारे लिए

चलती हु धारा बन
कहा से कहा ....
विलुप्त हो जाती हु
मिलकर तुमसे
अस्तित्व मिटा कर अपना
दरिया से
में समंदर होजाती हु

2 comments:

  1. समन्दर की सीमा और नदी का उद्दाम वेग........कितना प्रभावी बिम्ब........तट के बन्धन तोङता समन्दर और अस्तित्व मिटाकर समर्पित होती नदी........शानदार.........अपने बिम्ब की दृष्टि से ही नही वरन प्रतीक योजना की दृष्टि से श्रेष्ठ कविता-...
    मैं तो तुम्हारे पास आ रही थी
    और नदी समन्दर को समझा रही थी
    ....श्रेष्ठ सृजन अनवरत रखे...........पुनश्च शुभकामनाएं।

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  2. अद्भुत कविताएं..डा.धर्मवीर भारती की ’कनुप्रिया’की पांक्तियां हैं..." मेरे सांवले समुद्र / तुम आखिर हो मेरे कौन / मैं इसे कभी माप क्यों नही पाती..." शुभ-कामनाएं.

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