Wednesday, February 11, 2015

चुप रहना आदत नहीं थी ...
बचाए थे शब्द ,
लौटा दूंगी प्रेम का ब्याज जोड़ कर
तुम्हारे उलाहने पर
कभी तो कहोगे
“बहुत चुप –चुप रहती हो तुम “
ठीक उसी तरह
जब पहले मेरी आवाज सुनने की बचैनी में कहते थे तुम .....
सुन कर बरस जाते थे प्रीत के फूल मेरी बातों में ......
और तुम्हारे उलाहने सुनने को
अक्क्सर चुप हो जाया करती थी ...!!

पर अब तुम्हारे उलाहने ही चुप कर देते है

ब्याज जुड़ नहीं पाया ,
कोरी बचत कब तक चलती ...
बचे शब्द चुक गए चुप रहने में ..
अच्छा है
चुप्पी अब आदत बन गई
आदतो से निभाह हो जाती है

तुम्हारे उलाहने की धूप में
कभी छट जाये शायद
यह चुप रहने की आदत का कुहासा ....!!!

pravesh soni

No comments:

Post a Comment