Tuesday, July 20, 2010


ओरत

अतीत के पन्नों में झाँका
तो एक नादान ,अनजान
चंचल ,चपल ,बहकी मृगया सी
कुलाचे भारती हुई
नदी किनारे सीपीया बिनती हुई
भविष्य से बेखबर ,
वर्तमान में निश्चिन्त
अपने में ही जीती सी
अबोध सी कली-
कोन कही में शायद !!
वर्तमान की चोखट पर खडी
एक बेबस छाया ,
घर में बस एक कोना आया ,
दमित विचारों की मकड़ी
झुकी गर्दन ,कभी थी अकड़ी
सामाजिक बंधनों में शिथिल
उन्मुक्त गगन को निहारती
,स्वछंद विचरण की टूटी हुई आशा
भूत के न लोटते पल
वर्तमान के शोषित क्षण
भविष्य की चिंताओ में
स्वम को भूली सी
ओरो के लिए जीती
एक बेबस ओरत
कोन शायद में
हांहाँ में ही तो !!!!!

प्रवेश सोनी

4 comments:

  1. औरत की नियति को निजी अनुभवों से जोडकर कविता में कहने का प्रयास प्रशंसनीय है। शब्‍दों का चयन बेहतर है, बुनावट भी समय के साथ और निखरेगी, ऐसा विश्‍वास है। हार्दिक शुभकामनाएं

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  2. शुक्रिया माया जी ,आपकी शुभकामनाये ऊर्जा प्रदान करती है ,मेरी कोशिश अच्छा लिखने के प्रयास में रहेगी ..

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  3. भविष्य की चिंता में स्वयं को भूली सी ---
    वाह प्रवेश जी औरों के लिए जीती सी ---मन को अन्दर तक छूने वाले भाव
    औरों के लिए जीती सी ---चंद शब्दों में एक नारी के विविधता पूर्ण जीवन
    की जीवंत हकीकत --बयां कर दी आपने --एक बेबस औरत कौन शायद मैं ---
    जैसे समस्त नारी जगत को स्वयं में समाहित कर लिया हो किसी ने --
    नारी विसंगति पर बेहतरीन कविता --निश्चित ही नारी के अंतर्मन की
    पीड़ा को व्यक्त करने में पूर्ण सफल ---इतनी उम्दा अभिव्यक्ति के लिए
    के लिए आपको बहुत बहुत बधाई ---सादर ----

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  4. jagdish ji bahut bahut abhar apani vecharik abhivykti ke liye

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