Friday, January 21, 2011
बेटियाँ
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सुकोमल खिलती कलीयो सी
महक हे मेरे गुलशन की
चहकती चिडियों सी
सरगम हे मेरे जीवन की
ओंस की बूँद सी चमकती हे
मन के भाव पत्तों पर
बचपन के देखे सपने
आँखों में सजा
उड़ रही हे पंख फेलाए
मनमें लिए सफलता की आशा
चाँद तारो को छूने की अभिलाषा
मंजिलों की और हे कदम ....
सुने घर में
इधर उधर पसरी हे
बस उनकी यादेँ
बेटियाँ गुनगुनाती हे
खामोश आँगन में
शीतल हवा सी सरसराती हे
जब दूर हो जाती हे घर से
बेटियाँ बहुत याद आती हे
बातों बातों में उनकी बाते
आँखों के पोरों तक आजाती हे
पतवार बन खे रही हू
जाने क्यों यह नैया उस पार हो जाती हे
प्रवेश सोनी
Monday, January 10, 2011

घरोंदा
गीली रेत
पाँव पर थाप
बनाये थे ....
उस उम्र ने घरोंदे .......
शंख ,सीपी ,फूल ,पत्ते भर से
सज जाते थे बस .......
खेल –खेल में
सहज ही तोड़ दिए जाते
वह उम्र थी नादाँ ,
और थी घरोंदे के बाहर....
अब
भाव भूमि पर
मन ...
कभी असहज ,झुझलाकर
उच्छल महानद सा
टकराता हे बस दीवारों से ...
परिणति हे यही उसकी ,
क्योकि उम्र अब हे भीतर
नहीं निकाल पाती हे
पाँव अब
घरोंदे से बाहर .....
प्रवेश सोनी
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