
Thursday, December 23, 2010
Thursday, December 16, 2010

आंधियों को जिद्द हे बर्बाद करने की
बस्तियों को हे आदत आबाद होने की .....
बेशक ये खण्डर विरानो के मजार हे ,
तह में इनके भी हे ख्वाहिश बहारो की ....
समंदर उफनना तेरी आदत में हे शामिल ,
ताकत तो हे तेरी मोजो में मेरे ही पानी की ....
अमावस की हुकूमत में भी तय होगा सफर ,
जिद्द हे अब जीस्त को जीस्त से पाने की .....
ये खुशी भी आँखों से अश्क बहा देती हे ,
सज़ा मिली हे ,तुझे गीतों में गुनगुनाने की ....
प्रवेश सोनी
बस्तियों को हे आदत आबाद होने की .....
बेशक ये खण्डर विरानो के मजार हे ,
तह में इनके भी हे ख्वाहिश बहारो की ....
समंदर उफनना तेरी आदत में हे शामिल ,
ताकत तो हे तेरी मोजो में मेरे ही पानी की ....
अमावस की हुकूमत में भी तय होगा सफर ,
जिद्द हे अब जीस्त को जीस्त से पाने की .....
ये खुशी भी आँखों से अश्क बहा देती हे ,
सज़ा मिली हे ,तुझे गीतों में गुनगुनाने की ....
प्रवेश सोनी
Friday, December 3, 2010

बचपन की छोड़ चपलता,
बेटियों हो जाती हे जब बड़ी...
माँ का दिल सूखा पत्ता हो जाता हे
लाड से दुलार से सहेजती है
सलोनी गुडिया को
कोई कहे पराया धन ...
तो दिल चाक-चाक हो जाता हे
ये तो है छुई-मुई
छू ना ले कोई इस कचनार को,
कहीं चटक न जाये
रोक दो वक्त के प्रहार को
अंजाम के ख्याल से ही
माँ का दिल घबरा जाता है!
आ जाता अतीत आँखों में
थी वो भी किसी की लाडली
अपनी तरह
सपने सजाने संग किसी के
चली जायेगी यह लाडली
रिश्ते की देख नजाकत
माँ का दिल भर आता हे
बेटियों जब हो जाती हैं बड़ी
माँ का कद बौना हो जाता है !!!
______________________
Friday, November 26, 2010
Wednesday, November 24, 2010

भावावेश मयी खगी
कागज के पंख
लगा कर
उड़ने की कोशिश में
फडफडा रही हे
कभी दुःख की व्यथा भरी
कभी सुख की कथा भरी
चुगती हे दाने
उल्लास -विषाद के
कभी आर्तक्रदन
कभी निस्तब्ध निश्चेतन
विकल ह्रदय नभ पर
करती कभी उन्मन्न गुंजन
लहूलुहान हो जाती हे जब
अंतर्मन के दर्पण पर
प्रहार कर स्वं को समझ नहीं पाती
हे कोन जो अंतस में हे द्वंदरत ?
विलग रहता चेतन से सदा
थक हार निढाल हो
निर्मिमेष नजरो से
निहार सब और
उड़ जाती हे फिर
अन्नत में तलाशने खुद को ..........
pravesh soni
Wednesday, November 10, 2010

फासलो के
फलसफे
अहम और स्वभिमान
का द्वंद
अनुपूरक होते रिश्ते
दरकती दीवारे
बनती
सपनों की कब्रगाह
स्याह अंधेरो में
चीखते उजाले
कब ,केसे होगी भोर
असमंजस
कब होगी उदय
मन क्षितिज पर
सुखो की लालिमा
कब क्षीण होगी
दुखो की तपन
एक बूंद
आशा का प्रकाश
सहला देती हे
शीतल चांदनी बन
उठता हे मन फिर
एक बार
मर कर जीने के लिए .....!!!
प्रवेश सोनी
Monday, November 8, 2010
.jpg)
चाहत थी मन की
चाहत थी अपनी
राग की नदी बन बहूं तुम्हारी सांसों में
यही तो रही चाह तुम्हारी भी,
पर सहेज नहीं पाए
तुम अपने मन का आवेग
स्वीकार नहीं पाए
अपने भीतर मेरा निर्बंध बहना,
जो बांधता रहा तुम्हें किनारों में,
हर बार सह-बहाव से अलग
तुम निकल जाते रहे किनारा लांघकर
खोजते तुम्हें उसी मरुस्थल में
बूंद बूंद विलुप्त होती रही मैं
साथ बहने की मेरी आकांक्षाएं
पंछी की प्यास बनकर रह गईं
राग में डूबे मन ने फिर फिर चाहा
तुम्हारी चाहत बने रहना.....आजन्म
तुम हार तो सकते हो दीगर हालात से
मगर संवार नहीं सकते
अपना ये बिखरा जीवन-राग
मुझमें भी अब नहीं बची सामर्थ्य
धारा के विपरीत बहा ले जाने की
न आंख मूंदकर मानते रहना हर अनुदेश
मैं अनजान नहीं हूं अपनी आंच से
नहीं चाहती कि कोई आकर जलाए तभी जलूं
बुझाए, तब बुझ जाऊं
नहीं चाहती कि पालतू बनकर दुत्कारी जाऊं
और बैठ जाऊं किसी कोने में नि:शब्द
मुझे भी चाहिए अपनी पहचान
अपने सपने -
जो कैद है तुम्हारी कारा में
चाहिए मुझे अब अपनी पूर्णता
जो फांक न पैदा करे हमारे दिलों में ...
करो तुम्हीं फैसला आज
क्या मेरी चाहत गलत है
या तुम्हीं नहीं हो साबुत, साथ निभाने को ..???
प्रवेश सोनी
Tuesday, October 5, 2010
Sunday, September 26, 2010

अजन्मी बेटी की गुहार
माँ ! माँ !! माँ !!
माँ ,में हू तेरे तन का हिस्सा ,
तेरा अनजान सा सपना
तेरी बेटी :-
जो आकार लेना चाह रही हे तुझमे
तू मुझे पहचान कर
अपने से अलग करने का सोच रही हे
पर क्यों माँ ?
ना कर मुझे अपने तन से जुदा अभी
आने दे इस जहा में मुझे
तेरे आँचल की छाँव पा लेने दे मुझे
तेरे आदर्शो का आइना बनूँगी में :-
अभी तू इक आदर्श निभा ले माँ
तेरे अस्तित्व का आधार बनूँगी में :-
अभी अपने को मेरा आधार बना ले माँ
बाबा घर का नाम चले
यह सोच रहे है
पहचान उनकी बन, जग में नाम करुँगी में
में सेतु बन कुल मर्यादा का
सब धर्म निभाऊंगी ,
कर देना तब जुदा घर से
ना कर जुदा अभी अपने तन से
माँ ! मेरी माँ में आत्मा हू तेरी
मत घायल कर उसे इस ढंग से
प्रवेश सोनी
Monday, August 30, 2010

ख्याल
कभी इधर से –
तो कभी उधर से
यु ही हर वक्त
सनसनाती हवा से
गुजर जाते हो नजदीक से तुम
एक ख्याल बन कर
तुम्हे पाने को मचल उठती हू ,
तुम्हे जीने के लिए
तड़प उठती हू
तुम्हे सोचते - सोचते
नसे टूट जाती हे ,
फिर उठती हे पलके
और दिवा स्वप्न से
तुम उनमे बस जाते हो !
तनहा होना चाहती हू
तुम्हारे ख्यालो से ..
पर तन्हाई में और भी
उमड़ घुमड़ कर बरस
जाते हे आँखों से ...
तब मन की भूमि
सिंचित होकर
अंकुरित करती हे
एक सवाल ...
क्यों नहीं आते हो तुम ??
ख्याल बन कर क्यों
सताते हो तुम ???
प्रवेश सोनी
Tuesday, August 10, 2010
Tuesday, July 20, 2010

ओरत
अतीत के पन्नों में झाँका
तो एक नादान ,अनजान
चंचल ,चपल ,बहकी मृगया सी
कुलाचे भारती हुई
नदी किनारे सीपीया बिनती हुई
भविष्य से बेखबर ,
वर्तमान में निश्चिन्त
अपने में ही जीती सी
अबोध सी कली-
कोन कही में शायद !!
वर्तमान की चोखट पर खडी
एक बेबस छाया ,
घर में बस एक कोना आया ,
दमित विचारों की मकड़ी
झुकी गर्दन ,कभी थी अकड़ी
सामाजिक बंधनों में शिथिल
उन्मुक्त गगन को निहारती
,स्वछंद विचरण की टूटी हुई आशा
भूत के न लोटते पल
वर्तमान के शोषित क्षण
भविष्य की चिंताओ में
स्वम को भूली सी
ओरो के लिए जीती
एक बेबस ओरत
कोन शायद में
हांहाँ में ही तो !!!!!
प्रवेश सोनी
Thursday, July 15, 2010
Wednesday, July 7, 2010

आशा के उन्मुक्त शिखर पर
नेह मेघ बन छाओ
अनुबंधित कर दो
विचलित मन को
अनुराग मेह बरसाओ...
व्यथित तपित तन को
नयन बयार से सहलाओ ...
गुन -गुन गुंजित होंटो से
शब्द मधुरस टपकाओ ...
द्वार खड़ी हे
वादों के पतझड़ में
मिलन की आस तुमारी
विश्वास का मदुमास लिए
प्रियतम अब तो आजाओ ..
मन बेरागी न हो जाये ,
तन योवन न ढल जाये
अरमा चिता पर ...
सोये पहले
मधुमित तुम आजाओ
सहरा से तपते तन पर
नेह मेघ बन छाहो...
प्रवेश सोनी
Thursday, July 1, 2010
Thursday, June 3, 2010

कँहा हे बेटी का बसेरा
***********************
बेटी ने कहा
पिता से ,
बाबुल मेरे तुमने
भाई को दिया
घर बना के
मुझे भी दो
एक कमरा सजा के ,
पिता बोले
लाडो मेरी
तेरा यहाँ क्या हे ,
जाना हे
तुझे संग पिया के ,
मान कर
उनको अपना
सजाना
उनका घर अंगना ,
ख़ामोशी से
धेर्य रखकर
सजाये रुपहले
कुछ सपने मन में ,
कुछ जमी कुछ आसमान पाने
चली संग इक अजनबी के
इक नई दुनिया बसाने,
आँगन में पाँव
रखते ही
,कुछ दबी कुछ धीमी सी
आवाज़ आई ,
"दुसरे की जाई
आज घर हमारे आई "
तलाशती
नज़रे हर कोने में
अपनापन
क्या अस्तित्व हीन हे
बेटी का जन्म ?
बेटा इक वंश चालक
बेटी दो कुल तारक
सोचती -बाबुल का घर न मेरा
क्या यह भी हे बस एक रेनबसेरा ???
प्रवेश सोनी
Sunday, May 23, 2010

mai samander ho jati hu
तुम !!!
मचलते हो
अहं से उफनते हो,
सोचते हो ........
समाना हे मुझे
तुम्ही में
में !!!
समझती हु तुमारी
आकुलता,
जानती हु नीर से भरे हो
पर कितने प्यासे हो तुम
तुम असयंत से
व्याकुल होकर ,
तोड़ देते हो तट ,
पर नहीं आ पाते ........
पास मेरे
में ही आती हु
कत्तिन राहो ,पर्वतो को
लांघकर .....
अडिग शिलाये खंड खंड
हो जाती हे
वेग से मेरे
साथ बह कर
बन जाती हे शालिगराम
म्रदु जल लेकर आती हु
बुझाने तुमारी प्यास ,
प्रीत ही तो हे यह मेरी
समर्पण हे तुमारे लिए
चलती हु धारा बन
कहा से कहा ....
विलुप्त हो जाती हु
मिलकर तुमसे
अस्तित्व मिटा कर अपना
दरिया से
में समंदर होजाती हु
Friday, May 7, 2010
Wednesday, April 21, 2010
Sunday, April 4, 2010
Saturday, April 3, 2010
Wednesday, March 31, 2010
Subscribe to:
Posts (Atom)